लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
शांखा-सिन्दूर कथा
कुछ दिनों पहले मुर्शिदाबाद के किसी स्कूल के अधिकारियों ने यह हुक्म जारी किया कि स्कूल में विवाहिता लड़कियाँ शांखा-सिन्दूर पहनकर न आयें, अविवाहित लड़कियों को अपने दाम्पत्य जीवन के किस्से न सुनायें। यह हुक्म जारी होते ही, मीडिया तथा अन्य लोग-बाग़ बेहद ताव खा गये। क्या कहा? हिन्दू धर्म के विरुद्ध फ़तवा? अधिकारी वर्ग तो यह समझाना चाहते थे कि दाम्पत्य जीवन के रसीले बयान कुँवारी लड़कियों को विवाहित जीवन के प्रति आग्रही न बना दें और वे लोग लिखने-पढ़ने में दिलचस्पी न लेकर, जल्द से जल्द ब्याह करने को उतावली न हो जायें। अधिकारियों के तर्क किसी को भी पसन्द नहीं आये। ऐसी-ऐसी धमकियाँ मिलीं कि अधिकारियों को शांखा-सिन्दूर न पहनने का हुक्म वापस लेना पड़ा।
उधर उत्तर चौबीस परगना के गुमा नामक गाँव की रीना बौद्ध को गाँववालों ने बुरी तरह से मार-पीटकर गाँव से बाहर खदेड़ दिया। उसका गुनाह? शादीशुदा होते हुए भी रीना का शांखा-सिन्दूर न पहनना। रीना ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था, इसलिए रीना, शांखा-सिन्दूर नहीं पहनती थी, लेकिन गाँववालों ने फ़तवा जारी कर दिया, शांखा-सिन्दूर पहनना ही होगा वर्ना गाँव में नहीं रह सकती। रीना बौद्ध को लाचार हो कर अपने पति वीरेन्द्र बौद्ध के साथ गाँव छोड़ना पड़ा। वह अपने गाँव में, अपने घर में सुरक्षित रहना चाहती थी लेकिन वह निश्चिन्तता अभी तक उसे प्रशासन से नहीं मिली है।
खैर, शांखा-सिन्दूर के सैकड़ों किस्से हैं। सोनारपुर की सप्तमी, गपशप करने के लिए अक्सर ही मेरे यहाँ आया करती है। उसका जन्म सुन्दरवन में हुआ था। जिस वर्ष, बाढ़ में घर-मकान बह गये, उस वर्ष उसके माँ-बाप उसके ग्यारह भाई-बहनों को समेटे सोनारपुर चले आये। उन दिनों सप्तमी सात महीने की शिश थी। उसकी माँ उसे फर्श पर बिठाकर, लोगों के घर-घर नौकरी करती थी। सप्तमी भी छोटी उम्र से ही घर-घर काम करने लगी थी। बारह-तेरह वर्ष की उम्र में ही उसकी शादी हो गयी। पति ने कभी उसे प्यार नहीं दिया। ससुराल में वह दासी का काम करती रही। उस पर से पति समेत ससुरालवाले उसे बेभाव मारते-पीटते थे। इतने सारे अत्याचार सहते हुए भी पति का घर मानकर वहीं रह गयी। इस बीच उसे दो बेटियाँ भी हो गयीं। बच्चियाँ अभी गोद में ही थीं कि पति ने उसे पीट-पीटकर अधमरी कर दिया और घर से बाहर निकाल दिया। इस बात को भी पन्द्रह साल गुज़र गये। इन पन्द्रह सालों में पति ने कभी उसकी कोई खोज-खबर नहीं ली, दोनों बच्चियाँ ज़िन्दा हैं या मर गयीं, कभी यह जानने की भी कोशिश नहीं की। कभी, किसी दिन खर्चा-पानी भी नहीं दिया। सप्तमी ने भयंकर आर्थिक कष्ट में अपने दिन गुज़ारे? वह कभी उपासी रही, कभी आधा पेट खाकर, किसी तरह जीती रही, अपनी बच्चियों को बचाये रही, उन दोनों को पालती-पोसती रही। उधर उसके पति ने वर्षों पहले एक और शादी कर ली थी। लेकिन सप्तमी अभी भी शांखा पहनती है, माँग में सिन्दूर भरती है, हाथ में सुहाग-चिह्न-लोहा पहनती है। यह सब देख कर मैंने सप्तमी से सवाल किया, 'जिस शख्स ने तुम्हें इतनी-इतनी तकलीफ दी, इतना-इतना मारता-पीटता था, घर से बेघर कर दिया, पिछले पन्द्रह सालों से तुमसे कोई नाता-रिश्ता नहीं रखा। तुम भी कभी उसके पास लौटकर नहीं जाओगी। वह भी तुम्हें क़बूल नहीं करेगा। फिर तुम यह शांखा-सिन्दूर क्यों पहनती हो?'
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- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
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- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
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- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं